नदी के उस पार का प्यार

मैं सफर में था,

एक मंजिल की तलाश थी।


जहां रुकने की इच्छा हो,

जहां पेड़ की छांव हो,

जहां नदी की कलकल सुन सकूं,

जहां हल्की सुनहरी धूप हो,

जहां की आबो-हवा तरो – ताजा कर दे।

जहां वो मुझे विकसित करे

और मैं उसकी मदद करूं।

जहां मैं भी प्रकृति को बढ़ने में मदद करूं,

उसकी ऊर्जा बन सकूं, संचित कर सकूं,

जहां मैं नई क्यारियां लगाऊं

जो सब मिल कर पल्लवित हो।


कुछ अच्छी जगह रुकने के बाद,

खास दोस्तों की बदौलत,

हम एक अजनबी से मिले।


जब वो दरवाजे से अंदर बढ़ रहे थे,

तब कुछ क्षण के लिए हम ठहर से गए थे;

उस एकबारगी लगा कि दृश्य सुहावना है,

लेकिन फिर लगा क्या यह मंजिल हो सकती है?


कुछ समय तक जानने समझने के बाद भी,

मन वही सवाल पर अटका था।

लगा था की मंजिल अच्छी हो सकती है,

लेकिन शायद मेरे लिए नहीं है।


मेरी तलाश के लगभग सब पैमाने,

व्यवहारिक, भौतिक और ऊपरी थे,

केवल कुछ पैमाने ही जिंदगी के लिए थे,

बस सब ढूंढे जा रहे थे।


लेकिन उस एक मंजिल पर,

बहुत पैमाने साकार हो रहे थे,

भौतिक पैमाने थोड़े कम बने तो,

जिंदगी से जुड़े पैमाने, सोचे उससे अधिक थे।


लेकिन वो मंजिल,

फैसले की नदी के उस पार थी

नदी के पार एक नया शहर, 

नए दोस्त, नया काम, अनजाना भविष्य,

लेकिन रोमांच से भरपूर एक चुनौती,

जिसको पूरा करने की एक अलग खुशी होगी।


और जो नदी न पार करके इसी पार रुकता

तो अच्छा तो वह भी होता, आराम होता,

लेकिन तलाश जारी रहती और 

वही प्रश्न रहता कि जाने कौन, कैसी मंजिल मिलेगी?


हम कश्मकश में ही थे, लेकिन तब तक 

उसने खुद विश्वास की छलांग लगाकर,

फैसले की नदी पार की।


उन्होंने, उस मंजिल ने समझाया,

यहां रुकने की इच्छा है तो खुशी से रुकना,

रुक कर खुश होना,

लेकिन अपनी जिंदगी में एक जगह मत ठहरना।

यहां पेड़ की घनी छांव मिलेगी,

जिसकी गोदी में सर रखने से सुकून मिले,

लेकिन ऐसी भी न होगी जो,

अपने अंधेरे में कुछ नया न बनने दे।

यहां तुम नदी की कलकल सुन सकते हो,

लेकिन मैं भी तुम्हारी आवाज सुनना चाहूंगी।

यहां की धूप चुभने की बजाय,

मेहनत करने का हौसला देती रहेगी।

यहां की ठंडी आबो-हवा तरो – ताजा करेगी,

लेकिन ऐसी भी न होगी जो जुकाम कर दे।

यहां तुम मुझे ऊर्जा देना,

और मैं तुम्हें ऊर्जावान बनाती रहूंगी,

तुम पुरुष बन कर और मैं प्रकृति,

मिल कर एक दूसरे के लिए संसार बनाएंगे।

यहां तुम क्यारियां लगाना,

मैं उनको संचित करूंगी।

तुम मुझे पल्लवित करना,

और मैं तुम्हें विकसित करूंगी।


और फिर उसने हमें बताया कि,

उस मंजिल ने हम में अपना राही चुन लिया है।

हम खुश थे और अचंभित भी।


वो मंजिल ऐसी थी,

जिसे खुद पर भरोसा है,

ऐसा फैलने वाला भरोसा,

कि वो राही को भी हौसला दे दे,

विश्वास की छलांग लगाने का,

जो उसने लगाई थी, और जताया कि,

परिस्थिति कैसी भी हो,

कई बार केवल विश्वास से सब हो जाता है।


कहतें है की विश्वास पहाड़ को भी हिला सकता है,

यहां तो केवल इंसान ही था।

हमने उनके भरोसे को देखा,

उनके भरोसे ने हमारे अंदर,

एक विश्वास पैदा किया,

कि पुरुष और प्रकृति ही काफी है,

भले एक नई दुनिया बनानी हो,

और उनके साथ, उनके दिए विश्वास के साथ,

हमने साथ में वो फैसले की नदी,

पार कर ही ली।


हम सफर में थे

मंजिल की तलाश में

और हमारा सफर इस मंजिल पर

खतम हुआ,

एक नए विश्वास के साथ

एक नए सफर पर जाने के लिए।

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