विध्वंस, विनिर्माण और संतुलन

बहुत हुआ, मन माना उपभोग,
सहन कर, अब विध्वंस योग।

कर प्रलय, कर न संकुचित मन,
अब गर्जन, जहँ तक जन जीवन।

अब बन मर्दनी, कर मर्दन संहार नया,
तू हर है, भय शर्म अब छोड़ हया।

हाहाकार चारों तरफ होगा, भयभीत मन जीवन होगा,
यही समय है जब कभी, कुकृत्य से विनाश स्मरण होगा।

बाधाएँ जितनी आये भले, डगमगा तू नहीं सकता,
विश्वकर्मा नव युग का, तू ही बनेगा अब फिर कर्ता।

हाहाकार चहुँ तरफ होगा, भयभीत मन जीवन होगा,
यही समय है जब कभी, नव निर्माण जो स्फुटित होगा।

अब बन तर्जनी, कर उत्साह संचार नया,
तू कर है, सत-हीनता अब छोड़ हया।

देख प्रलय, कर न विचलित मन,
कर गर्जन, जहँ तक वन उपवन।

पहले विकास, और फिर विनाश,
सीख फटकार, वरन प्रलय पास।

ठहर, सोच-विचार, समझ, चिंतन कर जरा
अब न जागा, तो कब समझेगा भला?

बदलाव कर जीवन में, वरना समय ऐसा आएगा,
तांडव हर तरफ होगा, लेकिन कर कुछ भी न पाएगा।

तू ही है विनाशकारी, तू ही होगा निर्माणाधिकारी,
बिना विप्लव प्रतीक्षा फिर, रख यह संतुलन अब जारी।

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